जब देखता हूँ
टूटे खिलौने से खेलते बचपन को
खून से महगें दूध को तरसते बचपन को
नीले हरे पीले कंचों में भोली आखों से रंगीन सपने संजोते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है
जब देखता हूँ
बूढी माँ को काली धसी नज़रों से कपडे सीते
पुरानी टूटी गुल्लक में रूपया रुपया जोड़ते
फटी साडी से सूखे कलेजे छुपाकर
जब उसी साड़ी के छेद से एक उजली किरण निकलते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है
जब देखता हूँ
खांसते बाप को बिस्तर पर करवट बदलते
अपने कुरते से पूरानी फोटो की धूल उड़ाते
घुप अधेरी चार दीवारी से घंटो बतियाते
जब अकेले अंतिम सफ़र पर सीना ताने निकलते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है
द्वारा स्नील