रविवार, 16 सितंबर 2012

तू तेज़ चल !

धनुर्धर सी एक नज़र से
छूता जा तू लक्ष्य अविरल
रोके से भी न रुके
तू चलता जा तू तेज़ चल
तूफ़ा रोके तेरे पाँव
कड़ी धूप मिले न छाव
पत्थर कांटे भरी हो राहें
बिखर रही हो तेरी साँसे
सीधा चल न ढूँढ विकल्प
तू चलता जा तू तेज़ चल

अंत रहा तुझे ललकार
प्रतीक्षा करे है तेरी काल
खड़ा द्वार हो यम विकराल
तू भीष्म तू सवित्रि  तू अटल तू अचल
तू चलता जा तू तेज़ चल
हो समक्ष दुर्गम पर्वत का शिखर   
हो गहन जंगल का सफ़र
हो उठती हुई समंदर की लहर
चल पथिक न थम, कर हिम्मत, तू प्रबल
तू चलता जा तू तेज़ चल



द्वारा
स्नील शेखर

रविवार, 29 जुलाई 2012

सीता की पीड़ा


तुम सीता की पीड़ा क्या जानो
तुम राम नाम में डूबे हो
घर  छोड़ पती के संग चली
हर वनवास खुशी से सहती वो
डिगा  पिनाका बनी सबल
फिर घरों में घुटती क्यों 
सिद्ध नेक अग्नि परीक्षा कर
क्यों  ससुराल में जलती वो
दुर्गा बन असुर संघार किया
गर सडको पर तिल तिल  मरती वो
तू प्रीति प्रेम का ढोंग न कर
बिन  मेरे क्या जीवन पायेगा 
जब तेरे राम ही  दोषी हैं
तू कौन शरण में जाएगा
तुम सीता की पीड़ा क्या जानो
तुम राम नाम में डूबे हो


द्वारा
स्नील शेखर

बुधवार, 11 जुलाई 2012

मन मंथन


जीवन है अस्तव्यस्त हम सो ना पाए
मन है व्याकुल, नेत्र नम खुल के रो न पाए
विचार हैं अनेक परन्तु अर्थ संकुचित
नैतिक पतन और मस्तिष्क विचलित
आशाओं का ढेर आसन, भय आत्मसम्मान
मांगें हैं प्रछन्न कुटुंब का अभिमान
युवा कर कर विचार, समस्या जटिल किन्तु हल न पाए
जीवन है अस्तव्यस्त हम सो ना पाए


हल है सहज सरल किन्तु सहस चाहे
त्याग आम पथ, हट लीक से, नवीन कर
रख विशवास, चल कर आरम्भ बस  दृढ संकल्प चाहे
तू है वीर न थम, कर ले प्रण तू मन मंथन , तुझे  जय पुकारे




द्वारा
स्नील  शेखर        

शुक्रवार, 29 जून 2012

कुछ लिखने को दिल करता है


जब देखता हूँ
टूटे खिलौने से खेलते बचपन को
खून से महगें दूध को तरसते बचपन को
नीले हरे पीले कंचों में  भोली आखों से  रंगीन सपने संजोते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है




जब देखता हूँ
बूढी माँ को काली धसी नज़रों से  कपडे सीते
पुरानी  टूटी गुल्लक में रूपया रुपया जोड़ते
फटी साडी से सूखे कलेजे छुपाकर 
जब उसी साड़ी  के छेद से  एक उजली किरण निकलते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है





जब देखता हूँ
खांसते बाप को बिस्तर पर करवट बदलते
अपने कुरते से पूरानी फोटो की  धूल उड़ाते
घुप अधेरी चार  दीवारी से घंटो बतियाते
जब अकेले अंतिम सफ़र पर सीना ताने निकलते देखता हूँ
कुछ लिखने को दिल करता है




द्वारा स्नील

गुरुवार, 28 जून 2012

सपनो की पुडिया





बगल में छुपा कर सपनो की पुडिया
मंजिल नहीं मिलती
रुपयों की दूकान पर सासों को गिरवी रख
जिंदगी नहीं मिलती

प्रेमी चातक के गगन घूरने से
प्रेम की बारिश नहीं होती
बहा आखों से गर्म नमकीन पानी हिमालय के सिने की
बर्फ नहीं पिघलती


नींद भरी आँखों से तारे गिन
काली रात नहीं ढलती
गंगाधर विश्राम कर मानव
मुक्ति नहीं मिलती

गिरा रंग की पपड़ियाँ
इमारतें हसीं नहीं बनती
काली जबाँ अजाँ पढने से
उसकी रहमत नहीं मिलती


द्वारा स्नील